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ख़ुद को पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर किए जा चुप-चाप | शाही शायरी
KHud ko pa-basta-e-zanjir kiye ja chup-chap

ग़ज़ल

ख़ुद को पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर किए जा चुप-चाप

रफ़ीक़ ख़याल

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ख़ुद को पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर किए जा चुप-चाप
ख़्वाब शर्मिंदा-ए-ताबीर किए जा चुप-चाप

ख़ामा-ए-रंज-ओ-अलम से रुख़-ए-कम-माएगी पर
नुसरत-ए-जावेदाँ तहरीर किए जा चुप-चाप

ये अमल बाइ'स-ए-तस्कीन-ए-जुनूँ भी होगा
जज़्बा-ए-इश्क़ की ता'मीर किए जा चुप-चाप

ग़म-ए-दौराँ की अज़िय्यत भी तो दिल सहता है
ग़म-ए-जानाँ को भी जागीर किए जा चुप-चाप

ज़ख़्म गहरे तो ब-ज़िद शौक़ मिरे करता रहा
उस मसीहाई की तदबीर किए जा चुप-चाप

मक़्सद-ए-ज़िंदगी खुलता ही चला जाएगा
अपने दिल में उसे तस्वीर किए जा चुप-चाप

शाइ'री से है 'ख़याल' उस को शग़फ़ शे'रों में
अपने जज़्बात को तस्ख़ीर किए जा चुप-चाप