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ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में | शाही शायरी
KHud ko mumtaz banane ki dili-KHwahish mein

ग़ज़ल

ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में

राही फ़िदाई

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ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
दुश्मन-ए-जाँ से मिली मेरी अना साज़िश में

रूह रौशन न हुई और न दिल ही बहला
वक़्त बर्बाद किया जिस्म की आराइश में

आज माकूस है आईना-ए-अय्याम-ए-जहाँ
नीम में रंग-ए-हिना ज़ोर-ए-तपिश बारिश में

ख़ुद को मिन्नत-कश-ए-क़िस्मत न करो दीदा-वरो
गुलशन-ए-शौक़ उगाना है तुम्हें आतिश में

दस्त-बस्ता है सहर शब की इजाज़त के लिए
अब के ख़ुद्दार तबीअत न रही ताबिश में

पस्ती-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र वहशत-ए-असरार-ओ-रुमूज़
हो रहा है ब-ख़ुदा जहल फ़ुज़ूँ दानिश में

क़ब्ज़ा-ए-वक़्त में जुगनू है सितारा कि शरार
हम फ़क़ीरों का भला होगा न आलाइश में

बाँध ले अपनी गिरह में ये नसीहत 'राही'
ज़ब्त से काम ले नाख़ुन न बढ़ा ख़ारिश में