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ख़ुद देख ख़ुदी को ओ ख़ुद-आरा | शाही शायरी
KHud dekh KHudi ko o KHud-ara

ग़ज़ल

ख़ुद देख ख़ुदी को ओ ख़ुद-आरा

ग़ुलाम मौला क़लक़

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ख़ुद देख ख़ुदी को ओ ख़ुद-आरा
पहचान ख़ुदा को भी ख़ुदा-रा

तिरछी ये निगाह है कि आरा
हर जुज़्व-ए-जिगर है पारा पारा

देखेंगे बुतों की हम कजी को
सीधा है अगर ख़ुदा हमारा

क्यूँ मौत के आसरे पे जीते
ऐ ज़ीस्त हमें तो तू ने मारा

अल्लाह-रे दिल की बे-क़रारी
खाता ही नहीं कहीं सहारा

जाँ देनी है मेरी आज़माइश
दिलदारी है इम्तिहाँ तुम्हारा

तूफ़ान है जोश-ए-तिश्ना-कामी
दरिया भी तो कर गया किनारा

शीरीनी-ए-जाँ की कब खुली क़दर
जब ज़हर हुआ हमें गवारा

हर शाख़ पे आशियाँ है लर्ज़ां
इस बाग़ में हो चुका गुज़ारा

गर्दिश का 'क़लक़' की देखना औज
हर क़तरा-ए-ख़ूँ बना सितारा