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ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को | शाही शायरी
KHud apni KHwahishen KHak-e-badan mein bone ko

ग़ज़ल

ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को

सालिम सलीम

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ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
मिरा वजूद तरसता है मेरे होने को

ये देखना है कि बारी मिरी कब आएगी
खड़ा हूँ साहिल-ए-दरिया पे लब भिगोने को

अभी से क्या रखें आँखों पे सारे दिन का हिसाब
अभी तो रात पड़ी है ये बोझ ढोने को

न कोई तकिया-ए-ग़म है न कोई चादर-ए-ख़्वाब
हमें ये कौन सा बिस्तर मिला है सोने को

वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
वो मिल गया है तो जी चाहता है खोने को