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ख़ुद आप-अपनी ज़द में सितम-गर भी आएगा | शाही शायरी
KHud aap-apni zad mein sitam-gar bhi aaega

ग़ज़ल

ख़ुद आप-अपनी ज़द में सितम-गर भी आएगा

मंसूर उस्मानी

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ख़ुद आप-अपनी ज़द में सितम-गर भी आएगा
तुम मुंतज़िर रहो कि ये मंज़र भी आएगा

इस रेत के नगर को न घबराओ देख कर
आगे बढ़ो कि एक समुंदर भी आएगा

ख़ुशबू का क़ाफ़िला ये बहारों का सिलसिला
पहुँचा है शहर तक तो मिरे घर भी आएगा

चलते हो मेरे साथ तो इतना भी सोच लो
राहों में मेरी ग़म का समुंदर भी आएगा

मक़्तल को जा रहा हूँ ये 'मंसूर' सोच कर
छींटा कोई लहू का तो उन पर भी आएगा