ख़िज़र क्या हम तो इस जीने में बाज़ी सब से जीते हैं
दम अब उक्ता गया अल्लाहु-अकबर कब से जीते हैं
समझ ले क़ासिदों ने कुछ तो ऐसी ही ख़बर दी है
कहें क्या तुझ से ऐ नासेह कि जिस मतलब से जीते हैं
किसी हालत न हम से बढ़ सकेगी रात फ़ुर्क़त की
कि हम बाज़ी सियह-बख़्ती में भी इस शब से जीते हैं
दम अपना घुट के कब का हिज्र-ए-जानाँ में निकल जाता
मदद-गारी-ए-शोर-ए-नारा-ए-यारब से जीते हैं
इसे बावर कर ऐ ग़म-ख़्वार कब के मर गए होते
पयाम-ए-वस्ल जब से सुन लिया है तब से जीते हैं
ज़बाँ क़ाबू में है सुनने को तश्बीहें सुने जाओ
नज़ाकत में कहाँ औराक़-ए-गुल उस लब से जीते हैं
अबस दरयाफ़्त करते हो सबब इस सख़्त-जानी का
ख़ुदा जाने कि हम ऐ 'शाद' किस मतलब से जीते हैं
ग़ज़ल
ख़िज़र क्या हम तो इस जीने में बाज़ी सब से जीते हैं
शाद अज़ीमाबादी