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ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी | शाही शायरी
KHirad-amoz hasti hai magar ab kya kahun wo bhi

ग़ज़ल

ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी

नातिक़ गुलावठी

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ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
कि बन जाती है दीवानों की दुनिया में जुनूँ वो भी

सवाल इक बे-मुरव्वत से तलब ऐसी कि क्या कहिए
हम अपनी ज़िंदगी से माँगते हैं और सुकूँ वो भी

बुतों के साथ ली दी सी जो याद-अल्लाह बाक़ी है
तो क्या शैख़-ए-हरम तेरे लिए मैं छोड़ दूँ वो भी

रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
किसी दिन देखना हो कर रहेगी सर-निगूँ वो भी

धरा क्या है जो हम से याद-ए-माज़ी ले के जाएगी
जब आ जाती है तो दो घूँट पी लेती है ख़ूँ वो भी

गए सब वलवले सारी उमीदें हो गईं रुख़्सत
बची है ज़िंदगी बाक़ी तो अब मैं क्या करूँ वो भी

निराली बात दुनिया-ए-दनी में कौन सी होती
यहाँ तो दीदनी है और मिरा हाल-ए-ज़बूँ वो भी

मुसीबत ज़िंदगी की किस के घर अब सर छुपाएगी
अजल इतनी इजाज़त दे कि मैं लेता चलूँ वो भी

मोहब्बत हो तो हो भी जाए सर-बर चश्म-ए-पुर-फ़न से
अभी से क्या कहूँ 'नातिक़' फ़ुसूँ ये भी फ़ुसूँ वो भी