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खींच कर तलवार जब तर्क-ए-सितमगर रह गया | शाही शायरी
khinch kar talwar jab tark-e-sitamgar rah gaya

ग़ज़ल

खींच कर तलवार जब तर्क-ए-सितमगर रह गया

अनवरी जहाँ बेगम हिजाब

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खींच कर तलवार जब तर्क-ए-सितमगर रह गया
हाए रे शौक़-ए-शहादत मैं तड़प कर रह गया

मिलते मिलते रह गई आँख उस की चश्म-ए-मस्त से
होते होते लब-ब-लब साग़र से साग़र रह गया

आप ही से बे-ख़बर कोई रहा वा'दे की शब
क्या ख़बर किस की बग़ल में कब वो दिलबर रह गया

ले लिया मैं ने किनारा शौक़ में यूँ दफ़अ'तन
शोख़ियाँ भूला वो ख़ल्वत में झिजक कर रह गया

तुझ से क़ातिल कह दिया था दिल का ये अरमान है
देख ले आख़िर मिरे सीने में ख़ंजर रह गया

मुद्दतों से सीना-ए-बिस्मिल है जिस क़ातिल का घर
क्या हुआ दिल में अगर आज उस का ख़ंजर रह गया

चल दिए होश-ओ-ख़िरद तो मय-कशों के चल दिए
रह गया हाँ मय-कदे में दौर-ए-साग़र रह गया

सख़्त ख़जलत होगी देख ऐ शौक़-ए-उर्यानी मुझे
आज अगर इक तार भी बाक़ी बदन पर रह गया

कौन कहता है मकान-ए-ग़ैर पर तुम क्यूँ रह गए
अर्ज़ तो ये है कि रस्ते में मिरा घर रह गया

पारसाई शैख़-साहब की धरी रह जाएगी
दस्त-ए-साक़ी में अगर दम-भर भी साग़र रह गया

जिस के आने की ख़ुशी में कल से वारफ़्ता थे तुम
आज भी आते ही आते वो सितमगर रह गया