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खिड़कियाँ सब बंद कमरों और दालानों के बीच | शाही शायरी
khiDkiyan sab band kamron aur dalanon ke bich

ग़ज़ल

खिड़कियाँ सब बंद कमरों और दालानों के बीच

मोनी गोपाल तपिश

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खिड़कियाँ सब बंद कमरों और दालानों के बीच
बट गए परिवार आख़िर सैंकड़ों ख़ानों के बीच

मुझ को दुनिया जान लेती थी किसी के नाम से
वाक़िए गुम हो गए हैं जैसे अफ़्सानों के बीच

मैं हूँ छोटा तू बड़ा होगा मैं कैसे मान लूँ
अब यही चर्चा है अपनों और बेगानों के बीच

इक तरफ़ तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ इक तरफ़ है उस की याद
है कहाँ आसाँ गुज़रना ऐसे तूफ़ानों के बीच

खो दिया हर शख़्स ने बीनाई का रद्द-ए-अमल
एक चुटकी धूप ही फेंकी थी दीवानों के बीच