ख़याल-ओ-ख़्वाब से निकलूँ ज़ुहूर तक देखूँ
सफ़र के दाएरे तोड़ूँ उबूर तक देखूँ
मिरे लिए हैं ये हफ़्त-आसमाँ-ओ-हफ़्त-ज़मीं
तो किस लिए तिरे जल्वे मैं तूर तक देखूँ
समझ सका हूँ तुझे बस शुऊ'र की हद तक
ये फ़िक्र है कि तुझे ला-शुऊ'र तक देखूँ
रगें चटख़ गईं रिश्तों की शोरिशें कैसी
सदा लहू की जो आए तो दूर तक देखूँ
उलझ न जाऊँ कहीं रेशमी ख़यालों में
तिरा 'जमाल' पस-ए-रंग-ओ-नूर तक देखूँ

ग़ज़ल
ख़याल-ओ-ख़्वाब से निकलूँ ज़ुहूर तक देखूँ
ख़ालिद जमाल