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ख़याल-ओ-ख़्वाब में दीवार-ओ-दर भी साथ रक्खो | शाही शायरी
KHayal-o-KHwab mein diwar-o-dar bhi sath rakkho

ग़ज़ल

ख़याल-ओ-ख़्वाब में दीवार-ओ-दर भी साथ रक्खो

ख़ादिम रज़्मी

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ख़याल-ओ-ख़्वाब में दीवार-ओ-दर भी साथ रक्खो
मुसाफ़िरत में रहो और घर भी साथ रखो

अजब नहीं कि शहादत तलब करे मंज़िल
करो पड़ाव तो गर्द-ए-सफ़र भी साथ रखो

ज़र-ओ-गुहर से भी बनती हैं क़ामते लेकिन
कोई सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर भी साथ रखो

हम ऐसे लोग पस-ए-गुफ़्तुगू भी जानते हैं
हमें मिलो तो ख़ुलूस-ए-नज़र भी साथ रखो

कुछ इस लिए भी वो सैलाब भेज देता है
कि बस्तियों में रहो और खंडर भी साथ रखो

कड़ी है धूप तो ख़्वाबों में ही सही 'रज़्मी'
हरी रुतों के घनेरे शजर भी साथ रखो