ख़याल-ओ-ख़्वाब को परवाज़ देता रहता हूँ
मैं अपने आप को आवाज़ देता रहता हूँ
जो उन को रखेगा दुनिया में सुर्ख़-रू कर के
मैं अपने बच्चों को वो राज़ देता रहता हूँ
मैं छेड़ता हूँ सदा शाइ'री के तारों को
और अपने फ़न से कोई साज़ देता रहता हूँ
पलट के आएँगे इक दिन ज़रूर अच्छे दिन
मैं अपने तौर तो आवाज़ देता रहता हूँ
झुला के हाल को अक्सर ज़बाँ के झूले में
ग़म-ए-जहाँ को में अंदाज़ देता रहता हूँ
लगा के सीने से 'फ़य्याज़' उस के पैकर को
ग़ज़ल को हर घड़ी एज़ाज़ देता रहता हूँ
ग़ज़ल
ख़याल-ओ-ख़्वाब को परवाज़ देता रहता हूँ
फ़ैय्याज़ रश्क़