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ख़ल्वत हुई है अंजुमन-आरा कभी कभी | शाही शायरी
KHalwat hui hai anjuman-ara kabhi kabhi

ग़ज़ल

ख़ल्वत हुई है अंजुमन-आरा कभी कभी

अज़ीज़ तमन्नाई

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ख़ल्वत हुई है अंजुमन-आरा कभी कभी
ख़ामोशियों ने हम को पुकारा कभी कभी

ले दे के एक साया-ए-दीवार-ए-आरज़ू
देता है रहरवों को सहारा कभी कभी

किस दर्जा दिल-फ़रेब हैं झोंके उमीद के
ये ज़िंदगी हुई है गवारा कभी कभी

सौंपा है हम ने जिस को हर इक लम्हा-ए-हयात
ऐ काश हो सके वो हमारा कभी कभी

ऐ मौज-ए-ख़ुश-ख़िराम ज़रा तेज़ तेज़ चल
बनती है सत्ह-ए-आब किनारा कभी कभी

दस्त-ए-तही बढ़ाइए किस इश्तियाक़ से
टूटा है शाख़-ए-शब से जो तारा कभी कभी

हद्द-ए-नज़र के पार 'तमन्नाई' कौन है
महसूस हो रहा है इशारा कभी कभी