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ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना | शाही शायरी
KHair auron ne bhi chaha to hai tujh sa hona

ग़ज़ल

ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना

अहमद मुश्ताक़

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ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना
ये अलग बात कि मुमकिन नहीं ऐसा होना

देखता और न ठहरता तो कोई बात भी थी
जिस ने देखा ही नहीं उस से ख़फ़ा क्या होना

तुझ से दूरी में भी ख़ुश रहता हूँ पहले की तरह
बस किसी वक़्त बुरा लगता है तन्हा होना

यूँ मेरी याद में महफ़ूज़ हैं तेरे ख़द-ओ-ख़ाल
जिस तरह दिल में किसी शय की तमन्ना होना

ज़िंदगी मारका-ए-रूह-ओ-बदन है 'मुश्ताक़'
इश्क़ के साथ ज़रूरी है हवस का होना