ख़ाली शराब-ए-इश्क़ से साग़र कभी न थे
ऐसे तो ख़ुश्क दल के समुंदर कभी न थे
जो संग-ए-एहतिसाब यगानों के पास हैं
दुश्मन के हाथ में भी वो पत्थर कभी न थे
किस सम्त जा रहे हैं उन्हें ख़ुद पता नहीं
यूँ बे-ख़बर तो राह से रहबर कभी न थे
दिल टुकड़े टुकड़े हो गया ज़ख़्मी है रूह भी
इतने तो तेज़ वक़्त के नश्तर कभी न थे
मिलता नहीं कहीं भी दर-ओ-बाम का निशाँ
हम घर में रह के इतने तो बे-घर कभी न थे
क्या जानें क्या हुईं वो हसीं शोख़ियाँ 'हयात'
ऐसे निढाल फूल से पैकर कभी न थे

ग़ज़ल
ख़ाली शराब-ए-इश्क़ से साग़र कभी न थे
मसूदा हयात