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ख़ाक पर ही मिरे आँसू हैं न दामन में कहीं | शाही शायरी
KHak par hi mere aansu hain na daman mein kahin

ग़ज़ल

ख़ाक पर ही मिरे आँसू हैं न दामन में कहीं

ज़ेब उस्मानिया

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ख़ाक पर ही मिरे आँसू हैं न दामन में कहीं
जो तिरी राह में खोया गया पाया न गया

सबब-ए-ख़ंदा-ए-गुल गुल को नहीं ख़ुद मालूम
इस तरह कोई भी दीवाना बनाया न गया

मुख़्तलिफ़ नग़्मे से है क़ल्ब-ए-मुग़न्नी का राज़
जो लब-ए-साज़ पे भी बज़्म में लाया न गया

रख दिया ख़ल्क़ ने नाम उस का क़यामत ऐ 'ज़ेब'
कोई फ़ित्ना जो ज़माने से उठाया न गया