ख़ाक-बस्ता हैं तह-ए-ख़ाक से बाहर न हुए
जिस्म अपने कभी पोशाक से बाहर न हुए
जुरअत-ए-बाज़ू-ए-पैराक से बाहर न हुए
ये समुंदर मिरी इम्लाक से बाहर न हुए
ज़ेहन-ए-ख़ुफ़्ता ने हमा-वक़्त सई की लेकिन
फ़िक्र के ज़ाविए इदराक से बाहर न हुए
ज़ख़्म देती है नया रोज़ मुझे भूक मिरी
ये मसाइब मिरी ख़ूराक से बाहर न हुए
ज़ेर-ए-तकमील हैं दस्त-ए-फ़न-ए-कूज़ा-गर में
हम वो ईजाद हैं जो चाक से बाहर न हुए
शाख़ पर उभरे हैं ताबिंदा गुलों की सूरत
जो शरारे ख़स-ओ-ख़ाशाक से बाहर न हुए
काम आई न कोई वक़्त की चारा-जुई
ज़ख़्म-ए-कोहना दिल-ए-सद-चाक से बाहर न हुए
महव-ए-परवाज़ हैं सदियों से यूँही शम्स-ओ-क़मर
ये परिंदे हद-ए-अफ़्लाक से बाहर न हुए
मस्लहत-कोश हुए वक़्त के चेहरे 'सालिम'
अक्स आईना-ए-बेबाक से बाहर न हुए
ग़ज़ल
ख़ाक-बस्ता हैं तह-ए-ख़ाक से बाहर न हुए
सलीम शुजाअ अंसारी