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ख़ाक-बस्ता हैं तह-ए-ख़ाक से बाहर न हुए | शाही शायरी
KHak-basta hain tah-e-KHak se bahar na hue

ग़ज़ल

ख़ाक-बस्ता हैं तह-ए-ख़ाक से बाहर न हुए

सलीम शुजाअ अंसारी

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ख़ाक-बस्ता हैं तह-ए-ख़ाक से बाहर न हुए
जिस्म अपने कभी पोशाक से बाहर न हुए

जुरअत-ए-बाज़ू-ए-पैराक से बाहर न हुए
ये समुंदर मिरी इम्लाक से बाहर न हुए

ज़ेहन-ए-ख़ुफ़्ता ने हमा-वक़्त सई की लेकिन
फ़िक्र के ज़ाविए इदराक से बाहर न हुए

ज़ख़्म देती है नया रोज़ मुझे भूक मिरी
ये मसाइब मिरी ख़ूराक से बाहर न हुए

ज़ेर-ए-तकमील हैं दस्त-ए-फ़न-ए-कूज़ा-गर में
हम वो ईजाद हैं जो चाक से बाहर न हुए

शाख़ पर उभरे हैं ताबिंदा गुलों की सूरत
जो शरारे ख़स-ओ-ख़ाशाक से बाहर न हुए

काम आई न कोई वक़्त की चारा-जुई
ज़ख़्म-ए-कोहना दिल-ए-सद-चाक से बाहर न हुए

महव-ए-परवाज़ हैं सदियों से यूँही शम्स-ओ-क़मर
ये परिंदे हद-ए-अफ़्लाक से बाहर न हुए

मस्लहत-कोश हुए वक़्त के चेहरे 'सालिम'
अक्स आईना-ए-बेबाक से बाहर न हुए