कौन तन्हाई का एहसास दिलाता है मुझे
ये भरा शहर भी तन्हा नज़र आता है मुझे
जाने किस मोड़ पे खो जाए अंधेरे में कहीं
वो तो ख़ुद साया है जो राह दिखाता है मुझे
उस की पलकों से ढलक जाऊँ न आँसू बन कर
ख़्वाब की तरह जो आँखों में सजाता है मुझे
अक्स ता अक्स बदल सकती हूँ चेहरा मैं भी
मेरा माज़ी मगर आईना दिखाता है मुझे
वो भी पहचान न पाया मुझे अपनों की तरह
फूल भी कहता है पत्थर भी बताता है मुझे
अजनबी लगने लगा है मुझे घर का आँगन
क्या कोई शहर-ए-निगाराँ से बुलाता है मुझे
किसी रुत में भी मिरी आस न टूटी 'सरवत'
हर नया झोंका ख़लाओं में उड़ाता है मुझे

ग़ज़ल
कौन तन्हाई का एहसास दिलाता है मुझे
नूर जहाँ सरवत