कौन कहता है ग़म मुसीबत है
ये भी मौला की ख़ास रहमत है
लोग क्यूँ ज़िंदगी पे मरते हैं
मेरे हक़ में तो ये क़यामत है
हीला-जूई है उस की रहमत की
कब इबादत कोई इबादत है
शुक्र ने'मत का जब नहीं करता
क्यूँ मुसीबत की फिर शिकायत है
मुझ से बद-तर बहुत हैं आलम में
क़ाबिल-ए-रश्क मेरी हालत है
क़ल्ब-ए-मोमिन न ग़म से घबराए
सुनते हैं बा'द-ए-रंज राहत है
मुझ से होती नहीं ग़ज़ल 'नादिर'
इस क़दर मुज़्महिल तबीअ'त है
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ग़ज़ल
कौन कहता है ग़म मुसीबत है
नादिर शाहजहाँ पुरी