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कौन हूँ क्यूँ ज़िंदा हूँ सोचता रहता हूँ | शाही शायरी
kaun hun kyun zinda hun sochta rahta hun

ग़ज़ल

कौन हूँ क्यूँ ज़िंदा हूँ सोचता रहता हूँ

नज़ीर क़ैसर

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कौन हूँ क्यूँ ज़िंदा हूँ सोचता रहता हूँ
ख़्वाबों की दुनिया में जागता रहता हूँ

रंग और ख़ुश्बू से धुँदलाए रस्तों में
हवा की उँगली थाम के चलता रहता हूँ

आवाज़ों की गठरी सर पे उठाए हुए
ख़ामोशी के ज़ीने चढ़ता रहता हूँ

जहाँ से मेरे जिस्म को इक दिन उगना है
मैं उस बाँझ ज़मीन को ढूँढता रहता हूँ

आँखों की उर्यानी से छुपने के लिए
नए नए मल्बूस पहनता रहता हूँ

सुब्ह-ओ-शाम हवा की अंधी लहरों में
ज़र्रा ज़र्रा हो के बिखरता रहता हूँ

सोई हुई राहों में तन्हा चाँद के साथ
सारी सारी रात भटकता रहता हूँ

लौह-ए-जहाँ पर बनती बिगड़ती तहरीरें
देखता रहता हूँ और सोचता रहता हूँ

जिस्म-ओ-जाँ की धूप से जलते सहरा में
अपना साया ओढ़ के चलता रहता हूँ