कट चुकी थी ये नज़र सब से बहुत दिन पहले
मैं ने देखा था तुझे अब से बहुत दिन पहले
आज तक गोश-बर-आवाज़ हूँ सन्नाटे में
हर्फ़ उतरा था तिरे लब से बहुत दिन पहले
मैं ने मस्ती में ये पूछा था कि हस्ती क्या है
रफ़्तगान-ए-मय-ओ-मशरब से बहुत दिन पहले
मस्लक-ए-इश्क़ फ़क़ीरों ने किया था आग़ाज़
ऐ मबलग़ तिरे मज़हब से बहुत दिन पहले
फिर किसी मय-कदा-ए-हुस्न में वैसी न मिली
जैसी पी थी किसी ख़ुश-लब से बहुत दिन पहले
एक शख़्स और मिला था मुझे तेरे जैसा
तू न था ज़ेहन में जब, जब से बहुत दिन पहले
हज़रत-ए-शैख़ का इक रिंद से कैसा रिश्ता
हाँ मिले थे किसी मतलब से बहुत दिन पहले
क्या तिरी सादगी-ए-तब्अ नई शय है 'शुऊर'
लोग चलते थे इसी ढब से बहुत दिन पहले
ग़ज़ल
कट चुकी थी ये नज़र सब से बहुत दिन पहले
अनवर शऊर