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कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती में कोई क्या सुनता | शाही शायरी
kashakash-e-gham-e-hasti mein koi kya sunta

ग़ज़ल

कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती में कोई क्या सुनता

जावेद शाहीन

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कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती में कोई क्या सुनता
हमीं तक आ न सकी दिल के टूटने की सदा

हर एक फूल के चेहरे पे गर्द जमने लगी
कहीं से आज ऐ अब्र-ए-बहार झूम के आ

चले थे जिस के भरोसे पे रहरवान-ए-बहार
वो माहताब सर-ए-दश्त पिछली शब निकला

कहीं सदा-ए-जरस है न गर्द-ए-राह-ए-सफ़र
ठहर गया है कहाँ क़ाफ़िला तमन्ना का

हुजूम-ए-लाला-ओ-गुल रास्ते से हट जाए
तलाश-ए-ख़ार में निकला है कोई आबला-पा

गुज़र के आया हूँ उन सख़्त मंज़िलों से जहाँ
तुम्हारी याद का साया भी आस-पास न था

कहीं से कोई पुकारे कि आज फिर 'शाहीन'
दिलों को डसने लगा है दिलों का सन्नाटा