करते हुए तवाफ़ ख़यालात-ए-यार मैं
फिर आ गया हूँ ज़ब्त की दुनिया के पार मैं
दुनिया को दिख रही है तो ज़िंदा-दिली मिरी
पत्थर पे सर पटकता हुआ आबशार मैं
चालाकियाँ धरी की धरी रह गईं मिरी
ख़ूब उस के आगे हो रहा था होशियार मैं
यूँ तो ज़रा सी बात है पर बात है बड़ी
तू मेरा ग़म-गुसार तिरा ग़म-गुसार मैं
कल था जो आज भी वही 'तरकश-प्रदीप' हूँ
दिल्ली में आ के भी नहीं बदला गंवार मैं

ग़ज़ल
करते हुए तवाफ़ ख़यालात-ए-यार मैं
तरकश प्रदीप