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करोड़ों साल का देखा हुआ तमाशा है | शाही शायरी
karoDon sal ka dekha hua tamasha hai

ग़ज़ल

करोड़ों साल का देखा हुआ तमाशा है

महमूद अयाज़

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करोड़ों साल का देखा हुआ तमाशा है
ये रक़्स-ए-ज़ीस्त कि बे-क़स्द-ओ-बे-इरादा है

अजीब मौज-ए-सुबुक-सैर थी हवा-ए-जहाँ
गुज़र गई तो कोई नक़्श है न जादा है

नशात लम्हे की वो क़ीमतें चुकाई हैं
कि अब ज़रा सी मसर्रत पे दिल लरज़ता है

अकेला मैं ही नहीं ऐ तमाशा-गाह-ए-जहाँ
जो सब को देख रहा है वो ख़ुद भी तन्हा है

उसी से रिश्ता-ए-दिल दिल उसी रू-गर्दां
उसी को ढूँड रहा हूँ उसी से झगड़ा है