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करना है ज़िंदगी जो क़फ़स में बसर मुझे | शाही शायरी
karna hai zindagi jo qafas mein basar mujhe

ग़ज़ल

करना है ज़िंदगी जो क़फ़स में बसर मुझे

शोला करारवी

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करना है ज़िंदगी जो क़फ़स में बसर मुझे
फिर क्यूँ न हों वबाल मिरे बाल-ओ-पर मुझे

अल्लाह रे शौक़-ए-दीद जिधर देखता हूँ मैं
जुज़ हुस्न दोस्त कुछ नहीं आता नज़र मुझे

होता है कोई दम में चराग़-ए-हयात गुल
शाम-ए-फ़िराक़ क्या हो उम्मीद-ए-सहर मुझे

राह-ए-तलब में दूरी-ए-मंज़िल का ग़म नहीं
मा'लूम हो चुका है मआल-ए-सफ़र मुझे

तक़दीर के लिखे को मिटा दूँ जबीं से मैं
क़िस्मत से मिल तो जाए तिरा संग-ए-दर मुझे

बैठा हुआ क़फ़स में यही सोचता हूँ मैं
लाई चमन से कौन कशिश खींच कर मुझे

अफ़्साना ज़िंदगी का न पूछो कि इश्क़ में
तकनी पड़ी है राह-ए-अजल उम्र-भर मुझे

बर्बादियों का अपनी कोई ग़म नहीं मगर
पाएगी फिर कहाँ ये तुम्हारी नज़र मुझे

'शो'ला' ख़याल-ए-दोस्त से ग़ाफ़िल नहीं हूँ मैं
मंज़ूर है जो चारा-ए-दर्द-ए-जिगर मुझे