कर सके दफ़्न न उस कूचे में अहबाब मुझे
ख़ाक में दिल की कुदूरत ने दिया दाब मुझे
हिज्र में पास न है ज़हर न ख़ंजर अफ़्सोस
न दिए मौत के भी चर्ख़ ने अस्बाब मुझे
क़ासिद आया है वहाँ से तो ज़रा थम ऐ होश
बात तो करने दे उस से दिल-ए-बेताब मुझे
नाम-ए-'तस्कीं' पे ये मज़मून-ए-तपिश ना-ज़ेबा
था तख़ल्लुस जो सज़ा-वार तो बेताब मुझे

ग़ज़ल
कर सके दफ़्न न उस कूचे में अहबाब मुझे
मीर तस्कीन देहलवी