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कम सितम करने में क़ातिल से नहीं दिल मेरा | शाही शायरी
kam sitam karne mein qatil se nahin dil mera

ग़ज़ल

कम सितम करने में क़ातिल से नहीं दिल मेरा

वसीम ख़ैराबादी

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कम सितम करने में क़ातिल से नहीं दिल मेरा
मेरे पहलू में छुपा बैठा है क़ातिल मेरा

वस्ल में यूँ मिरे पहलू को न पहलू से दबा
टूट जाए न कहीं आबला-ए-दिल मेरा

क़त्ल होने न दिया उस की नज़ाकत ने मुझे
रह गया अपना सा मुँह ले के वो क़ातिल मेरा

उन को नश्शा है मैं बे-ख़ुद हूँ यही डर है मुझे
वो कहीं हाल न पूछें सर-ए-महफ़िल मेरा

हिचकियाँ आईं दम-ए-नज़्अ' तो क़ातिल ने कहा
अब तो लेता है मज़े मौत के बिस्मिल मेरा

वक़्त-ए-आख़िर कोई रोता है लिपट के मुझ से
ये इनायत है तो मरना भी है मुश्किल मेरा

देखना कोई सर-ए-अर्श से तारा टूटा
या हसीं आँख से ज़ालिम की गिरा दिल मेरा

दस्त-बस्ता ये कहो हज़रत-ए-'साहिर' से 'वसीम'
आप चाहें तो खुले उक़्दा-ए-मुश्किल मेरा