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कल मिरा था आज वो बुत ग़ैर का होने लगा | शाही शायरी
kal mera tha aaj wo but ghair ka hone laga

ग़ज़ल

कल मिरा था आज वो बुत ग़ैर का होने लगा

अमीरुल्लाह तस्लीम

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कल मिरा था आज वो बुत ग़ैर का होने लगा
वाए क़िस्मत दो ही दिन में क्या से क्या होने लगा

याद मेरी आ गई मुँह फेर कर रोने लगे
अंजुमन में उन की जब ज़िक्र-ए-वफ़ा होने लगा

हाए कब इस ने निकाले अपने पैकाँ खींच कर
दर्द की लज़्ज़त से जब दिल आश्ना होने लगा

आह ने इतनी तो की तासीर पैदा शुक्र है
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा

बाम पर जब तक वो मेहर-ए-हुस्न है सरगर्म-ए-सैर
भीड़ क्यूँ छटने लगी क्यूँ रास्ता होने लगा

ख़ूब रोया बैठ कर वामांदगी की जान को
जब मिरी नज़रों से पिन्हाँ क़ाफ़िला होने लगा

ये भी ऐ 'तस्लीम' है बरगश्ता-बख़्ती का असर
जब दवा की हम ने दर्द-ए-दिल सिवा होने लगा