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कैसी ज़मीं सुकून कहाँ का कहाँ की छाँव | शाही शायरी
kaisi zamin sukun kahan ka kahan ki chhanw

ग़ज़ल

कैसी ज़मीं सुकून कहाँ का कहाँ की छाँव

ज़िशान इलाही

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कैसी ज़मीं सुकून कहाँ का कहाँ की छाँव
मुझ को निगल गई मिरे नख़्ल-ए-अमाँ की छाँव

छा जाएगी यक़ीन की अर्ज़-ए-बसीत पर
ज़ेहनों में फैलते हुए दूद-ए-गुमाँ की छाँव

गहराइयों ने मुझ को उभरने नहीं दिया
रक़्साँ थी सत्ह-ए-आब पे इक बादबाँ की छाँव

सूरज की मुम्लिकत में ग़नीमत समझ उसे
सर से गुज़र गई तिरे अब्र-ए-रवाँ की छाँव

हम धूप के सफ़र पे मुसलसल हैं गामज़न
कश्कोल-ए-चश्म में लिए इक साएबाँ की छाँव