कैसे रफ़ू हों चाक-ए-गरेबाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
अपने अपने दर्द का दरमाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
जिस के लिए इक उम्र से लम्बी काटी हम ने काली रात
सुब्ह वो क्यूँ है शाम-ब-दामाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
मेरे लहू से नक़्श हुई है मेरी ही तस्वीर मगर
किस का है ये शौक़-ए-निगाराँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
रोज़-अफ़्ज़ूँ है मेरी तमन्ना और तिरा बेगाना-पन
इस बे-रब्त सी नज़्म का उनवाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
ज़ख़्मों के ख़ूँ-रंग उजाले मुझ को ही मर्ग़ूब सही
कौन है इन ज़ख़्मों में फ़रोज़ाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
घर की मुंडेरों तक बरपा है दीवाली का सारा जश्न
कैसे हो अंदर भी चराग़ाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
दिल ने भी थक-हार के आख़िर दर-दरवाज़े बंद किए
कौन हो अब इस ग़म का निगहबाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
उन के आगे फैला हुआ था दस्त-ए-तमन्ना ऐ 'असरार'
या कि तह-ए-ख़ंजर थी रग-ए-जाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
ग़ज़ल
कैसे रफ़ू हों चाक-ए-गरेबाँ मैं भी सोचूँ तू भी सोच
असरारुल हक़ असरार