कैसे पाऊँ तुझे गिर्दाब नज़र आता है
और तू मुझ को तह-ए-आब नज़र आता है
तू जो दिख जाए तो मैं ईद मुकम्मल समझूँ
अब मुझे तुझमें ही महताब नज़र आता है
चाक दामन भी है मुफ़लिस भी है बे-घर भी है
इस लिए ज़र का उसे ख़्वाब नज़र आता है
एक वो शख़्स जो औरों के लिए जीता हो
आज के दौर में कमयाब नज़र आता है
दौर-ए-मुश्किल में मुझे जिस ने नहीं पहचाना
आज वो मिलने को बेताब नज़र आता है

ग़ज़ल
कैसे पाऊँ तुझे गिर्दाब नज़र आता है
रघुनंदन शर्मा