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कैसा तारा टूटा मुझ में | शाही शायरी
kaisa tara TuTa mujh mein

ग़ज़ल

कैसा तारा टूटा मुझ में

नज़ीर क़ैसर

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कैसा तारा टूटा मुझ में
झाँक रही है दुनिया मुझ में

कोई पुराना शहर है जिस का
खुलता है दरवाज़ा मुझ में

दिया जला के छोड़ गया है
कोई अपना साया मुझ में

बंद हुई जाती हैं आँखें
कैसा मंज़र जागा मुझ में

आवाज़ें देता है मुझ को
कोई 'मीर' के जैसा मुझ में

कोई मुझ को ढूँढने वाला
भूल गया है रस्ता मुझ में

ख़ाली थी गुल-दान में टहनी
खिला हुआ था शोला मुझ में

बरस रही थी बारिश बाहर
और वो भीग रहा था मुझ में

उड़ता रहता है रातों को
'क़ैसर' कोई परिंदा मुझ में