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कहने को यहाँ जीने का सामान बहुत है | शाही शायरी
kahne ko yahan jine ka saman bahut hai

ग़ज़ल

कहने को यहाँ जीने का सामान बहुत है

रशीदुज़्ज़फ़र

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कहने को यहाँ जीने का सामान बहुत है
इक तू जो नहीं ज़िंदगी वीरान बहुत है

मिलता है सर-ए-राह तो कतराता है मुझ से
अब अपने किए पे वो पशेमान बहुत है

चेहरे के तअस्सुर से तो लगता है कि ख़ुश है
गर रूह में झाँको तो परेशान बहुत है

फेंक आया था वो मुझ को किसी अंधी गुफा में
मंज़िल पे मुझे पा के वो हैरान बहुत है

सीता है अगर तू तुझे पाना नहीं मुश्किल
तेरे लिए बस राम का इक बान बहुत है

इक हर्फ़-ए-मोहब्बत ही असासा है 'ज़फ़र' का
अर्ज़ां जो ज़माने में मिरी जान बहुत है