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कहीं ये तस्कीन-ए-दिल न देखी कहीं ये आराम-ए-जाँ न देखा | शाही शायरी
kahin ye taskin-e-dil na dekhi kahin ye aaram-e-jaan na dekha

ग़ज़ल

कहीं ये तस्कीन-ए-दिल न देखी कहीं ये आराम-ए-जाँ न देखा

सरस्वती सरन कैफ़

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कहीं ये तस्कीन-ए-दिल न देखी कहीं ये आराम-ए-जाँ न देखा
तुम्हारे दर की जो ख़ाक पाई तो हम ने सू-ए-जिनाँ न देखा

बड़ी चमक आफ़्ताब में थी अजब दमक माहताब में थी
उछाल दी ख़ाक-ए-दिल जो हम ने किसी को फिर ज़ौ-फ़िशाँ न देखा

अगर मुक़द्दर करे न यारी तो फ़र्क़ क्या है कोई जगह हो
चलो वो क़ैद-ए-क़फ़स ही देखी फुंका हुआ आशियाँ न देखा

बजा ये फ़रमाया कोई तुझ सा गदा मुबर्रम नहीं जहाँ में
हुज़ूर मैं ने भी सारी दुनिया में आप सा मेहरबाँ न देखा

हज़ार फूलों में दिलकशी हो बनाए गुलशन है ख़ार-ओ-ख़स पर
वो क्या चमन है कि जिस चमन ने नशात-ए-दौर-ए-ख़िज़ाँ न देखा

उछाल कर कश्ती-ए-शिकस्ता किनारे मौजों ने फेंक दी है
बड़ा ही शोहरा था बहर-ए-ग़म का पर उस को भी बे-कराँ न देखा

रुकी रुकी नब्ज़ डूबता दिल उखड़ती साँसें भटकती आँखें
तुम्हारे ही देखने के क़ाबिल था तुम ने ही ये समाँ न देखा

कभी पुराने ग़मों की सोज़िश कभी नई कश्मकश का खटका
दिल-ए-गिरफ़्ता को शादमानी में भी कभी शादमाँ न देखा

हज़ार की तू ने हर्ज़ा-गोई मगर कहा मुद्दआ' न दिल का
जो सच कहें तो ज़माने में 'कैफ़' तुझ सा भी बे-ज़बाँ न देखा