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कहीं मोहब्बत के आसमाँ पर विसाल का चाँद ढल रहा है | शाही शायरी
kahin mohabbat ke aasman par visal ka chand Dhal raha hai

ग़ज़ल

कहीं मोहब्बत के आसमाँ पर विसाल का चाँद ढल रहा है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

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कहीं मोहब्बत के आसमाँ पर विसाल का चाँद ढल रहा है
चराग़ के साथ ताक़चे में गुलाब का फूल जल रहा है

बहुत दिनों से ज़मीन अपने मदार पर भी नहीं है लेकिन
अभी वही शाम छा रही है अभी वही दिन निकल रहा है

मुझे यक़ीं था मैं इन सितारों के साए में उम्र भर चलूँगा
बहुत ही आहिस्तगी से लेकिन ये सारा मंज़र बदल रहा है

कभी मोहब्बत से बाज़ रहने का ध्यान आए तो सोचता हूँ
ये ज़हर इतने दिनों से मेरे वजूद में कैसे पल रहा है

कहीं रवानी में बढ़ रहे हैं कहीं सितारे रुके हुए हैं
ख़बर नहीं काएनात का ये निज़ाम किस तरह चल रहा है

अभी गुमाँ तक नहीं है 'साजिद' उसे मैं फिर याद भी करूँगा
मगर ये क्यूँ आइने से हट कर वो अक्स भी हाथ मल रहा है