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कहीं खो न जाना ज़रा दूर चल के | शाही शायरी
kahin kho na jaana zara dur chal ke

ग़ज़ल

कहीं खो न जाना ज़रा दूर चल के

स्वप्निल तिवारी

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कहीं खो न जाना ज़रा दूर चल के
मुसाफ़िर तिरी ताक में हैं धुँदलके

मिरा नींद से आज झगड़ा हुआ है
सो लेते हैं दोनों ही करवट बदल के

इसी डर से चलता है साहिल किनारे
कहीं गिर न जाए नदी में फिसल के

अजब बोझ पलकों पे दिन भर रहा है
अगरचे तिरे ख़्वाब थे हल्के हल्के

जताते रहे हम सफ़र में हैं लेकिन
भटकते रहे अपने घर से निकल के

अँधेरे में मुबहम हुआ हर नज़ारा
मिली एक दूजे में हर शय पिघल के

ज़माने से सारे शरर चुन ले 'आतिश'
यही तो अनासिर हैं तेरी ग़ज़ल के