कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
कि अपने हक़ में भी हमवार हो लिया जाए
वो जिस ने ज़ख़्म लगाए रखेगा मरहम भी
उसी का दिल से तरफ़-दार हो लिया जाए
यही है नींद का मंशा कि ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से
सहीह वक़्त पे बेदार हो लिया जाए
गिरह-कुशाई-ए-मौज-ए-नफ़स बहाना है
कि इस बहाने से उस पार हो लिया जाए
किसी की राह में आने की ये भी सूरत है
कि साया के लिए दीवार हो लिया जाए
ग़ज़ल
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही