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कहीं गिरफ़्त नहीं कोई इस्तिआरा नहीं | शाही शायरी
kahin giraft nahin koi istiara nahin

ग़ज़ल

कहीं गिरफ़्त नहीं कोई इस्तिआरा नहीं

नरजिस अफ़रोज़ ज़ैदी

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कहीं गिरफ़्त नहीं कोई इस्तिआरा नहीं
नवाँ फ़लक हूँ कि जिस पर कोई सितारा नहीं

रुके मुंडेर पे कब ताइरान-ए-रंग सदा
सबात हो जिसे ऐसा कोई नज़ारा नहीं

उलझ रहा है मिरा बख़्त फिर मिरे दिल से
हमारा कैसे है वो शख़्स जो हमारा नहीं

दरा-ए-सरहद-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद अगर है ख़ला
तो ये न समझें कि इस बहर का किनारा नहीं

हम अहल-ए-दिल थे सो ये हादिसा तो होना था
कि अहद वो भी सहा है जिसे गुज़ारा नहीं