कहाँ ये ताब कि चख चख के या गिरा के पियूँ
मिले भरा हुआ साग़र तो डगडगा के पियूँ
हज़ार तल्ख़ हो पीर-ए-मुग़ाँ ने जब दी है
ख़ुदा न-कर्दा जो मैं मुँह बना बना के पियूँ
मज़ा है बादा-कशी का वहीं तो ऐ साक़ी
पियूँ जो अब तो तिरे आस्ताँ पे आ के पियूँ
बग़ैर जल्वा दिखाए रहे न ये मा'शूक़
जो सात पर्दे के अंदर उसे छुपा के पियूँ
मैं वो नहीं कि ख़ुद अपने क़दह की ख़ैर मनाऊँ
पियूँ तो बज़्म में दस पाँच को पिला के पियूँ
ज़मीं पे जाम को रख दे ज़रा ठहर साक़ी
मैं तुझ पे हूँ लूँ तसद्दुक़ तो फिर उठा के पियूँ
वो मय-कदा है न साक़ी है कुछ न पूछो 'शाद'
मैं किस के घर में पियूँ किस के घर से ला के पियूँ
ग़ज़ल
कहाँ ये ताब कि चख चख के या गिरा के पियूँ
शाद अज़ीमाबादी