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कहाँ तो पा-ए-सफ़र को राह-ए-हयात कम थी | शाही शायरी
kahan to pa-e-safar ko rah-e-hayat kam thi

ग़ज़ल

कहाँ तो पा-ए-सफ़र को राह-ए-हयात कम थी

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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कहीं तो पा-ए-सफ़र को राह-ए-हयात कम थी
क़दम बढ़ाया तो सैर को काएनात कम थी

सिवाए मेरे किसी को जलने का होश कब था
चराग़ की लौ बुलंद थी और रात कम थी

ख़याल सहरा-ए-ज़ात में उस मक़ाम पर था
जहाँ कि गुंजाइश-ए-फ़रार-ओ-नजात कम थी

वो फ़र्द-ए-बख़्शिश कि जिस की तकमील की है मैं ने
निगाह डाली तो इस में अपनी ही ज़ात कम थी

बहुत हँसे ख़ूब रोए जी खोल कर जिए हम
अगरचे मीआद-ए-हस्ती-ए-बे-सबात कम थी

तिरे करम से बड़ा था कुछ ए'तिक़ाद मेरा
इसी लिए मुझ को फ़िक्र-ए-सोम-ओ-सलात कम थी

बहाओ पानी की बूँद पर ख़ून का समुंदर
नहीं तो इक क़तरा-ए-लहू से फ़ुरात कम थी

ग़ज़ल 'मुज़फ़्फ़र' की ख़ूब थी इस में शक नहीं है
मगर तग़ज़्ज़ुल के नाम पर एक बात कम थी