EN اردو
कहाँ पे लाई है मेरी ख़ुदी कहाँ से मुझे | शाही शायरी
kahan pe lai hai meri KHudi kahan se mujhe

ग़ज़ल

कहाँ पे लाई है मेरी ख़ुदी कहाँ से मुझे

रिफ़अतुल क़ासमी

;

कहाँ पे लाई है मेरी ख़ुदी कहाँ से मुझे
न अपने दिल से ग़रज़ है न अपनी जाँ से मुझे

न इस जहान से निस्बत न उस जहाँ से मुझे
बस एक रब्त है दुनिया-ए-बे-निशाँ से मुझे

शुऊ'र-ए-ज़ीस्त मिला फ़िक्र-ए-दो-जहाँ से मुझे
मता-ए-दर्द मिली दिल के आस्ताँ से मुझे

क़रार-ए-जाँ न बनी अपनी हस्ती-ए-मौहूम
गिला यही है तिरी उम्र-ए-जावेदाँ से मुझे

ये हो रहे हैं सर-ए-अर्श तज़्किरे किस के
ये किस ने आज बुलाया है जिस्म-ओ-जाँ से मुझे

ज़रा सँभलने तो दे ऐ जहान-ए-कम-आसार
ख़ुद-आगही ने गिराया है आसमाँ से मुझे

पयम्बरी के एवज़ मैं ने शाइ'री की है
ये हौसला तो मिला उस के आस्ताँ से मुझे