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कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है | शाही शायरी
kaDe hain kos safar dur ka zaruri hai

ग़ज़ल

कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है

मुसव्विर सब्ज़वारी

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कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
घरों से रिश्तों का अब ख़ात्मा ज़रूरी है

परस्तिश अपनी अना के बुतों की कर ली बहुत
सुकून-ए-दिल के लिए इक ख़ुदा ज़रूरी है

कहीं तो थोड़ी सी गुंजाइश-ए-ख़ुलूस मिले
दिलों में छुप के यहाँ झाँकना ज़रूरी है

मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
तुम आईना हो तो फिर टूटना ज़रूरी है

न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
क़दम बढ़ाओ कि ये हादसा ज़रूरी है

तमाम सफ़्हे सभी गोश्वारे जब तेरे
हमारा कर्ब किताबों में क्या ज़रूरी है