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कबूतर जिस तरफ़ से आ रहा है | शाही शायरी
kabutar jis taraf se aa raha hai

ग़ज़ल

कबूतर जिस तरफ़ से आ रहा है

ख़ाक़ान ख़ावर

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कबूतर जिस तरफ़ से आ रहा है
उधर तीरों का लश्कर जा रहा है

बदन किरनों का मेला हो न जाए
फ़ज़ा में वो धुआँ फैला रहा है

हमारे कल को महकाना है उस ने
मगर वो फूल तो मुरझा रहा है

ये मेरी लाश को साहिल पे रख कर
समुंदर किस तरफ़ को जा रहा है

मैं खो जाता कहीं ज़ुल्मत में लेकिन
मुझे रस्ता कोई दिखला रहा है

नहीं पीछे भी मुड़ के मैं ने देखा
ये मेरा जिस्म क्यूँ पथरा रहा है

कोई ज़ीना तो पाँव में है 'ख़ावर'
जो इस तेज़ी से ऊपर जा रहा है