EN اردو
कभी वफ़ूर-ए-तमन्ना कभी मलामत ने | शाही शायरी
kabhi wafur-e-tamanna kabhi malamat ne

ग़ज़ल

कभी वफ़ूर-ए-तमन्ना कभी मलामत ने

हुसैन आबिद

;

कभी वफ़ूर-ए-तमन्ना कभी मलामत ने
थका दिया है बदन रोज़ की ख़जालत ने

मैं ज़ख़्म ज़ख़्म था बिस्तर की सिलवटों में घिरा
मिरा जो हाल किया सुब्ह की मलाहत ने

फ़ज़ा-ए-जब्र तुझे चाक चाक कर देंगे
निगल लिए जो सितारे तिरी कसाफ़त ने

किसी जमाल की छब हो किसी कमाल की ज़ौ
उजाड़ डाला है पज़मुर्दगी की आदत ने

हम ऐसे कौन से ग़र्क़-ए-नशात-ओ-ऐश थे जो
हमें ही ताक लिया ख़ौफ़ की रिसालत ने

ग़ुरूर ही का न बहरूप हो 'हुसैन-आबिद'
जो इज्ज़ तुझ को दिया है तिरी इबादत ने