कभी सुकूँ तो कभी इज़्तिराब भी झेला
खुली जो आँख तो अंजाम-ए-ख़्वाब भी झेला
क़दम क़दम पे पुराने सबक़ भी याद आए
क़दम क़दम पे बदलता निसाब भी झेला
बयाज़-ए-दिल के सुनहरे हुरूफ़ भी चूमे
किताब-ए-जाँ पे लिखा इंतिसाब भी झेला
हमारा हक़ भी मुसल्लम था क़तरे क़तरे पर
हमीं ने तिश्ना-लबी का अज़ाब भी झेला
कभी जो आईना-ख़ाने की सैर को निकले
तो एक मंज़र-ए-ख़ुद एहतिसाब भी झेला
चले तो सारे ज़माने को साथ ले के चले
रुके तो आलम-ए-ख़ुद-इज्तिनाब भी झेला
न जाने किस की रही जुस्तुजू 'ज़िया' हम को
कि हम ने इक दिल-ए-ख़ाना-ख़राब भी झेला
ग़ज़ल
कभी सुकूँ तो कभी इज़्तिराब भी झेला
ज़िया फ़ारूक़ी