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कभी मिली है जो फ़ुर्सत तो ये हिसाब किया | शाही शायरी
kabhi mili hai jo fursat to ye hisab kiya

ग़ज़ल

कभी मिली है जो फ़ुर्सत तो ये हिसाब किया

सलीम शुजाअ अंसारी

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कभी मिली है जो फ़ुर्सत तो ये हिसाब किया
सवाब कितने किए कितना इर्तिकाब किया

हमेशा अपने अमल का ख़ुद एहतिसाब किया
ख़ुद अपने आप को ऐसे भी बे-नक़ाब किया

तमाम उम्र भटकते रहे गुमानों में
वो शय मिली ही नहीं जिस का इंतिख़ाब किया

दराज़ कर न सके फिर भी कासा-ए-ग़ैरत
तरह तरह से तबीअत ने बे-हिजाब किया

कभी तो ज़ब्त ने दरिया को कर दिया सहरा
कभी जुनूँ ने भी सहरा को आब आब किया

अलग न हो सका दिल याद-ए-रफ़्तगाँ से कभी
तिरे ख़याल से हर-चंद इज्तिनाब किया

ये ज़िंदगी हमें कैसे मुआ'फ़ कर देती
वो वक़्त वक़्त था हम ने जिसे ख़राब किया

जवाब दे गईं सारी ज़िहानतें 'सालिम'
किसी सवाल ने ता-उम्र ला-जवाब किया