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कभी कसक जुदाई की कभी महक विसाल की | शाही शायरी
kabhi kasak judai ki kabhi mahak visal ki

ग़ज़ल

कभी कसक जुदाई की कभी महक विसाल की

इक़बाल अशहर

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कभी कसक जुदाई की कभी महक विसाल की
क़दम न थे ज़मीं पे जब वो उम्र थी कमाल की

कई दिनों से फ़िक्र का उफ़ुक़ उदास उदास है
न जाने खो गई कहाँ धनक तिरे ख़याल की

रफ़ाक़तों के वो निशाँ न जाने खो गए कहाँ
वो ख़ुशबुओं की रहगुज़र वो रतजगों की पालकी

किसी को खो के पा लिया किसी को पा के खो दिया
न इंतिहा ख़ुशी की है न इंतिहा मलाल की

वो रौशनी का ख़्वाब था मगर वही सराब था
उरूज में छुपी हुई थी इब्तिदा ज़वाल की