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कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं | शाही शायरी
kabhi kabhi arz-e-gham ki KHatir hum ek bahana bhi chahte hain

ग़ज़ल

कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं

सलाम मछली शहरी

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कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
जब आँसुओं से भरी हों आँखें तो मुस्कुराना भी चाहते हैं

वो दिल से तंग आ के आज महफ़िल में हुस्न की तमकनत की ख़ातिर
नज़र बचाना भी चाहते हैं नज़र मिलाना भी चाहते हैं

मज़ा जब आए कि इंतिक़ामन मैं दिल का आईना तोड़ डालूँ
मिरे ही हाथों सजे हैं और अब मुझी पे छाना भी चाहते हैं

जभी तो ख़ुद आज शहर के गुल-रुख़ों की तारीफ़ कर रहे हैं
वो इंतिख़ाब-ए-नज़र को मेरे अब आज़माना भी चाहते हैं

अगरचे तूफ़ान-ए-रंग-ओ-बू की शरीर लहरों से थक चुके हैं
मगर वो दिल के नए तलातुम की ज़द में आना भी चाहते हैं

'सलाम' आज़ाद शाएरी की तवील ओ दुश्वार राह में हम
कभी कभी बरबत-ए-तग़ज़्ज़ुल पे गुनगुना भी चाहते हैं