कभी हवा कभी बिजली के हम-रिकाब हुआ
फिर इस के बअ'द मैं जीने में कामयाब हुआ
नज़र-नवाज़ नज़ारे थे मेरे चारों तरफ़
खुली जो आँख तो बरहम वो सारा ख़्वाब हुआ
कभी जो बाइस-ए-राहत था अहल-ए-दिल के लिए
ये क्या हुआ कि वो मंज़र भी अब अज़ाब हुआ
वो अल-अतश की सदाएँ वो कर्ब-ए-तिश्ना-लबी
फ़ुरात जिस के तसव्वुर से आब आब हुआ
हमारी चीख़ फ़ज़ाओं में खो गई यानी
खुला दरीचा कोई वा न कोई बाब हुआ
हमारे क़त्ल की साज़िश में था शरीक तो क्या
ख़ता मुआफ़ करम उस का बे-हिसाब हुआ
अना पसंद तबीअ'त की सरफ़राज़ी देख
कि 'नाज़' ख़ाक में मिल कर भी आफ़्ताब हुआ
ग़ज़ल
कभी हवा कभी बिजली के हम-रिकाब हुआ
नाज़ क़ादरी