कभी हँस कर कभी आँसू बहा कर देख लेता हूँ
मैं हर चेहरे को आईना दिखा कर देख लेता हूँ
बहुत बेचैन कर देती हैं जब तन्हाइयाँ घर की
दर-ओ-दीवार पर शक्लें बना कर देख लेता हूँ
छुपाता है बहुत मुझ को मिरा साया मगर फिर भी
मैं ख़ुद को रौशनी से दूर जा कर देख लेता हूँ
नज़र आता नहीं जब हर्फ़ कोई लौह-ए-आलम पर
मैं अपना नाम लिख कर और मिटा कर देख लेता हूँ
जिसे देखा नहीं है देख कर भी मेरी आँखों ने
मैं उस को अपने ख़्वाबों में सजा कर देख लेता हूँ
नहीं मिलता कहीं जब अपनी हस्ती का निशाँ मुझ को
मैं अपना अक्स पानी में बहा कर देख लेता हूँ
जिसे देखा नहीं रोता हूँ उस की याद में शब-भर
जिसे पाया नहीं उस को गँवा कर देख लेता हूँ
कभी करना हो अंदाज़ा जब अपने दर्द का मुझ को
मैं उस बेदर्द के दिल को दुखा कर देख लेता हूँ
पहन लेती हैं जब शाख़ें हरे मौसम के पैराहन
कोई टूटा हुआ पत्ता उठा कर देख लेता हूँ

ग़ज़ल
कभी हँस कर कभी आँसू बहा कर देख लेता हूँ
नज़ीर क़ैसर